घायल की गति घायल जानै,

एक समय था जब प्रेम किसी सिद्धांत की तरह नहीं, बल्कि एक प्रार्थना की तरह जिया जाता था। लोग किसी से प्रेम करते थे, तो वह प्रेम जीवन का केंद्र बन जाता था- एक ही व्यक्ति में संसार की समूची परिधि दिखाई देती थी। वही मित्र था, वही सखा, वही सलाहकार और वही विश्रामस्थल। उस एक व्यक्ति के बिना सब कुछ अधूरा लगता था, और उस एक व्यक्ति की उपस्थिति से पूरा संसार अर्थ पा लेता था।

किन्तु समय का प्रवाह बड़ा सूक्ष्म और निर्मम होता है। मनुष्य की तरह प्रेम भी समय के साथ बदलता गया- पहले सहजता से, फिर अनजाने में, और अब लगभग योजनाबद्ध रूप से। आज प्रेम कोई एक भाव नहीं रहा, वह कई स्तरों, कई खाँचों, कई ऐप्स और कई चैट्स में विभाजित हो गया है। अब किसी के पास “एकमात्र” होने का सुख नहीं है; सबके पास “थोड़ा-थोड़ा सब कुछ” है।

अब किसी से बात करने वाला कोई और होता है, किसी के साथ घूमने वाला कोई और, किसी से मन की बात कहने वाला कोई और, और कभी-कभी किसी के साथ तस्वीरें साझा करने वाला भी कोई और। यह आधुनिक संबंधों का नया व्याकरण है, जहाँ “कमिटमेंट” का अर्थ बदल गया है- अब यह किसी अनुबंध से ज़्यादा, सुविधा का प्रतीक बन गया है।

परंतु हर युग में कुछ आत्माएँ होती हैं जो समय से आगे नहीं बढ़ पातीं, या शायद बढ़ना चाहती भी नहीं। वे अब भी प्रेम को उस पुराने, पवित्र, एकनिष्ठ अर्थ में देखती हैं- जहाँ प्रेम केवल आकर्षण नहीं, आत्मा का संयोग होता है। ऐसे लोग जब आधुनिक रिश्तों के इस उलझे हुए जाल में प्रवेश करते हैं, तो उन्हें सबसे अधिक चोट लगती है।

वे सोचते हैं कि प्रेम अब भी पूर्ण हो सकता है, कि किसी एक व्यक्ति में अब भी सम्पूर्ण जीवन समाया जा सकता है। लेकिन जब सामने वाला व्यक्ति प्रेम को केवल एक “अनुभव” या “इंटरैक्शन” समझता है, तो वह पुरानी आत्मा टूटने लगती है। धीरे-धीरे उसे यह कहा जाने लगता है कि वह “ओवरथिंक” करता है, “पज़ेसिव” है, या “फ्री स्पेस” नहीं देता। और इस आधुनिक शिष्टाचार के नाम पर वह आत्मा, जो सच्चाई से प्रेम करना जानती थी, एक दिन भीड़ में खो जाती है- भीड़ में रहकर भी अकेली।

दूसरी ओर, वे लोग जो “मॉडर्न” कहे जाते हैं, जिन्होंने प्रेम को हिस्सों में बाँटना सीख लिया है, उनके भीतर भी एक कहानी छिपी है। वे वैसे नहीं बने जैसे हैं, उन्हें जीवन ने ऐसा बना दिया। किसी ने उनके विश्वास को तोड़ा, किसी ने उनका निष्कपट हृदय लौटाया नहीं, किसी ने उन्हें यह सिखाया कि दिल की गहराई में उतरना ख़तरनाक है।
इसलिए उन्होंने अपने भीतर दीवारें खड़ी कर लीं। अब वे किसी से पूरी तरह नहीं जुड़ते, क्योंकि जुड़ने का अर्थ उनके लिए फिर से टूटना है।

वे हर व्यक्ति को एक अलग खिड़की की तरह देखते हैं- जहाँ थोड़ी रोशनी आती है, थोड़ी बात होती है, और फिर खिड़की बंद। वे स्वयं को “इमोशनली अवेलेबल” कहते हैं, पर सच में वे भावनात्मक रूप से घायल होते हैं। वे मुस्कराते हैं, मज़ाक करते हैं, पर भीतर कहीं एक गहरा शून्य है जिसे वे किसी को दिखाना नहीं चाहते। लेकिन जब ये दोनों दुनिया- पुरानी आत्मा और आधुनिक मन- टकराते हैं, तो त्रासदी जन्म लेती है।

पुरानी आत्मा पूर्णता खोजती है, आधुनिक मन सुविधा।
पुरानी आत्मा एकाकी समर्पण चाहती है, आधुनिक मन बहुस्तरीय जुड़ाव। और इस विरोधाभास में हमेशा पुरानी आत्मा ही पराजित होती है। वह सोचती है कि प्रेम विफल हुआ, जबकि वास्तव में प्रेम नहीं, उसका युग विफल हुआ है। फिर वह अपने भीतर लौटती है, अकेलेपन में डूबती है, और धीरे-धीरे उसे लगता है कि दुनिया ही छलपूर्ण है।
पर सत्य यह है कि दुनिया बुरी नहीं होती- हम अपने पुराने घावों के चश्मे से उसे देखने लगते हैं। हम बार-बार उसी प्रकार के लोगों को चुनते हैं, जो हमारे पुराने दर्द से मेल खाते हैं। हम उसी पैटर्न में लौटते हैं, जिसे हम सबसे पहले जी चुके होते हैं। और फिर शिकायत करते हैं कि सब एक जैसे हैं। लेकिन यह भ्रम है।

दुनिया में अब भी ऐसे लोग हैं जो सच्चे हैं, जो स्थायी हैं, जो अब भी प्रेम को समर्पण की तरह जीते हैं। हमने बस उन्हें पहचानने की दृष्टि खो दी है। हमने अपने भीतर वह गहराई ही बंद कर दी है, जहाँ से किसी को सच्चे अर्थों में देखा जा सके। इसलिए आवश्यक है कि हम रुकें, सोचें, और स्वयं से यह प्रश्न पूछें- “मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ? मेरे भीतर यह भय, यह अविश्वास, यह अस्थिरता कहाँ से आई?”

शायद तब हमें अपने जीवन की कुछ पुरानी घटनाएँ याद आएँगी- वह धोखा, वह उपेक्षा, वह असफलता- जिसने हमें बदल दिया। और फिर धीरे-धीरे समझ में आएगा कि हर कोई हमें चोट पहुँचाने नहीं आया है। कुछ लोग हमें ठीक करने भी आते हैं। लेकिन उनके आने से पहले हमें अपने भीतर का भय समाप्त करना होगा। क्योंकि प्रेम, अपने शुद्धतम रूप में, आज भी वैसा ही है जैसा कभी था- बस हमने उसे “मॉडर्न” कहकर टुकड़ों में बाँट दिया है।

प्रेम अब भी वही अनन्त नदी है, पर हम अब किनारों पर खड़े हैं, पानी से डरते हुए यह सोचते हैं कि डूबने से बेहतर है प्यासा रहना। पर प्रेम तो डूबने का ही नाम है- जहाँ तुम अपने “मैं” को भुलाकर किसी के “हम” में विलीन हो जाते हो। और जो इस डूबने से डर गया, वह प्रेम को कभी समझ ही नहीं सका।

Note: आप इससे सहमत असहमत हो सकते है यही अंतिम सत्य नहीं है।

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Neeraj Patel

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अगर एक ही बार झूट न बोलने और चोरी न करने की तलक़ीन करने पर सारी दुनिया झूट और चोरी से परहेज़ करती तो शायद एक ही पैग़ंबर काफ़ी होता।